छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
वेदी के दूसरी ओर बैठे हुए कुछ लोग भी सद्यः प्रज्वलित अग्नि की आँच न सह सकने के कारण खड़े हो गए थे। अधिकांश लोगों के चेहरों पर गर्मी के कारण सुर्खी उभर आई थी किन्तु बिना पूर्णाहुति का प्रसाद लिए कोई जाने का इच्छुक न था। स्वामीजी के साथ-साथ सत्यव्रत भी आप से आप मन्त्रोच्चारण करने लगा । मन्त्र की समाप्ति पर स्वाहा के साथ-साथ सत्यव्रत और वह लड़की दोनों यन्त्रवत् दाएँ हाथ की मुट्ठी में भरकर थोड़ी-थोड़ी सामग्री हवन कुंड की अग्नि पर फेंकते एक भाव-विह्वल होकर यह दृश्य देख रहे थे ।
धीरे-धीरे स्वामीजी ने यज्ञ के हलुवे के उस पूरे थाल की आहुति दे दी, मगर दूसरे ही क्षण फलों और मेवों से भरे दो थाल उनके सामने और आ गए और आहुति का क्रम फिर जारी हो गया। बड़े-बड़े ताज़े बम्बइया केले और सन्तरे अग्नि में पड़कर छटपटाते हुए झुलसने लगे। दो-चार सेब भी भुन चुके थे और उनकी चटर-पटर की आवाज़ सत्यव्रत को बरबस उसकी भूख का अहसास करा रही थी ।
तभी जाने किसके कहने से उस लड़की ने घी का बड़ा-सा कटोरा उठाकर लगभग आधा घी अग्नि के ऊपर उलट दिया। सहसा लपट ऊपर उठी और हवन कुंड की आँच तेज़ हो गई। सत्यव्रत ने आँखों को आँच से बचाने के लिए जैसे ही अपना मुँह बाईं ओर घुमाया, उसकी दृष्टि अनायास उस लड़की की दृष्टि से जा टकराई। वह भी शायद आँखों को आँच से बचाने के लिए ही उस ओर देखने लगी थी। सत्यव्रत को उधर देखते पाकर उसने अनजाने ही गर्दन को एक झटका-सा दिया और वेदी की ओर देखने लगी ।...
अनायास बेचैनी से सत्यव्रत ने करवट बदली कि तख़्त में उभरी हुई कोई छोटी-सी कील उनके सीने पर बाईं तरफ़ जा चुभी। वह उठकर बैठ गया और झोले से तुरन्त दूसरी चादर निकालकर उसने तख़्त पर बिछा ली। निश्चिन्त होकर वह फिर लेट गया । मन्दिर में निस्तब्धता थी और कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। रात की ख़ामोशी पूरी तरह छा गई थी । बराबर की कोठरी में ठहरे हुए महाशयजी के खर्राटे वातावरण की गम्भीरता को बढ़ा रहे थे। तभी खड़ाऊँ की हल्की-सी आवाज़ हुई और आर्यसमाज मन्दिर के प्रबन्धक महोदय स्वामीजी के कमरे से निकलकर सहन पार करते हुए अपनी कोठरी की तरफ़ चले गए।
सत्यव्रत अँधेरे में भी खड़ाऊँ की आहट से ही उन्हें पहचान गया । उन्होंने ही तो यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद सत्यव्रत के संस्कृत - ज्ञान की प्रशंसा करते हुए यज्ञ के प्रमुख लोगों का परिचय दिया था, “वह अधेड़ से व्यक्ति जिन्हें स्वामीजी ने अपनी धोती पहनने को दी थी, आपके कॉलेज की प्रबन्ध समिति के सदस्य लाला छदम्मीलाल थे और वह विमलाजी, जो आपके साथ आहुति डाल रही थीं, प्रबन्ध समिति के उप-प्रधान चौधरी नत्थूसिंह की लड़की है।” सत्यव्रत को प्रबन्धक जी का यह सौजन्यपूर्ण व्यवहार और साथ ही उनका स्वभाव बहुत पसन्द आया। सुबह भी बिना किसी परिचय के ही उन्होंने कितनी सहजता से उसे यहाँ ठहरने की अनुमति दे दी थी। और शाम को वह इस बात पर नाराज़ हुए थे कि सत्यव्रत संकोचवश प्रसाद के लिए नहीं रुका।
“भाई, आप तो लड़कियों से भी अधिक संकोची हैं। आखिर विमला भी तो प्रसाद लेने के लिए रुकी रही।” प्रबन्धकजी की इस स्नेहपूर्ण नाराज़ी और सरल-से परिहास को याद करते-करते उसकी आँखें नींद से भारी हो आईं। वह तख़्त पर औंधा लेट गया, किन्तु तुरन्त सो नहीं सका, क्योंकि तख़्त में एक-दो जगह कीलें उभरी थीं। और इस बार फिर एक कील उसके सीने में चुभ गई थी ।